महर्षी दयानंद के यजुर्वेद (3/6) भाष्य में विज्ञान की प्रमाणिकता।


Written By - Vedic Dharmi Ashish 

 ईश्वरीय वरदान वेद में अनेकों गुढ़ ज्ञान और विज्ञान छुपा है जिसको हमारे पुराने पारंपरिक आचार्य लोग तक नहीं पहचान पाए तथा उनसे वेदों के भाष्य करने में अनेकों त्रुटी भी हुई । लेकिन बाद के आचार्यों ने भी उन त्रुटियों को ठीक करने के वाजय अपने हट धर्मिता के कारण वेदों के विज्ञान को उजागर करने में असमर्थ रहे।

किन्तु महर्षी दयानंद जी जिन्होंने वेदों के यथार्थ ज्ञान को दुनिया के आगे प्रकाशित किया तथा वेद मंत्रों के गुढ़ विज्ञानों को भी आधुनिक समाज के सामने रखा यह बात उनको बाकी आचार्यों से अलग करती है क्यू की एक ऋषि कोटी के व्यक्ति ही वेदों के यथार्थ अर्थों को ज्यादा अच्छे से खोल सकता है इसमें कोई संदह नही है।

स्वामी दयानंद जी के द्वारा यजुर्वेद (3/6) का यथार्थ भाष्य :

Yajurveda (3/6) By Rushi Dayanand 

महर्षी दयानंद जी ने यजुर्वेद (३/६) में पृथ्वि का भ्रमण मानते हुए अत्यंत ही वैज्ञानिक भाष्य किए हैं लेकिन बाकी पौराणिक आचार्यों के भाष्य इस से भिन्न मिलते है। 

और स्वामी करपात्री जैसे लोग भी अपने वेदार्थ पारिजात पुस्तक ( पेज १३००) में महर्षी के पृथ्वी भ्रमण विषय का खण्डन करते हुए लिखे हैं की वेद में कहीं नहीं लिखा की पृथ्वी घूमती है। यह उनके अज्ञानता को दर्शाता है।

"आयं गौः पृश्नि॑रक्रमी॒द" यह मंत्र लगभग चारों वेदों में मिलता है जैसे की ऋग्वेद (१०/१८९/१), सामवेद ( ६३० ), सामवेद ( १३७६ ), यजुर्वेद (३/६) , अथर्ववेद ( ६/३१/१) , अथर्ववेद (२०/४८/४) आदि। और है वेद में इस मंत्र के पाठ समान होते हुए भी कुछ स्थान पर देवता और ऋषी में भेद मिलता है।

आचार्य सायण ने ऋग्वेद (१०/१८९/१) में आए इस मंत्र के भाष्य करते हुए यहां गौ का अर्थ गमन शील सूर्य से लिया तथा सूर्य अंतरिक्ष में पृथ्वी के चक्कर लगाता है ऐसा भाष्य किया। 

इसी प्रकार आचार्य उवट तथा महिधर ने यजुर्वेद (३/६) के भाष्य में गौ का अर्थ अग्नि लिया है तथा यज्ञ अग्नि का पृथ्वी में भ्रमण करना भाष्य कर दिया। लेकिन किसी भाष्य पुराना होने से उसका मत परम होता है यह जरूरी नहीं।

गौ का अर्थ पृथ्वी :
परंतु महर्षी दयानंद ने यहां गौ का अर्थ पृथ्वी लिया है क्यू की गौ शब्द पृथ्वी का भी वाचक है।
Unadi Sutra (2/68)
महर्षी पाणिनी के उणादि सूत्र(२/६८) के अनुसार गौ शब्द "गम्" धातू से "डो" प्रत्याय लग के बनता है और जो गम् धातू है उसका अर्थ गमनशील ही होता है। 
अर्थात जो भी वस्तु गमनशील होता है उसको गौ विशेषण दिया जा सकता है, जैसे की किरण, पृथ्वी, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र आदि को गमनशील होने के कारण उनको वैदिक साहित्य में यह नाम दिया गया ।

महर्षी यास्क के निघंटू शब्दकोष (१/१) में भी जो पृथ्वी के २० नाम दिए गए हैं उनमें भी पृथ्वी को गौ कहा गया है। इसी प्रकार निरुक्त (२/५) में भी पृथ्वी को गौ कहा गया है।

इस से संस्कृत व्याकरण से तो सिद्ध हो जाता है की पृथ्वी गमनशील है।
ब्राह्मण ग्रंथों में गौ का अर्थ पृथ्वी:
Shatpath Brahman (6/1/2/35)
शतपथ में भी पृथ्वी को गौ कहा गया है क्यू की जो भी गति करता है वाह गौ कहलाता है तथा पृथ्वी के साथ इसमें रह रहे अन्य प्राणी भी गति कर रहे हैं ।
Jaiminiya Brahamn (3/304)
जैमिनीय ब्राह्मण में भी इस मंत्र के व्याख्या आया है जिसमे गौ और पृश्नि दोनो शब्दों को पृथ्वी के विशेषण के रूप में व्याख्या किया गया है। 

यहां गौ शब्द पृथ्वी के गमनशीलता के कारण कहा गया है तथा पृथ्वी नाना रूप रंग वाले प्रजाओं को पोषित करती है इसलिए उसको पृश्नि विशेषण भी दिया गया है।

किसी भी पारम्परिक आचार्य ने इस मंत्र में गौ तथा पृश्नि का अर्थ पृथ्वी के विशेषण में नहीं किया है जब की ब्रह्मण ग्रंथों में ऋषियों ने इसका व्याख्या पृथ्वी के विशेषण के रूप में ही किया है। 

ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार इस यजुर्वेद (३/६) का कुछ इस प्रकार अर्थ बनता है - आयं (यह ) गौः (गमनशील पृथ्वी) पृश्निः (नाना रंग तथा प्रकार के प्रजाओ को पोषित करने वाली) अक्रमीत् (गति करती हुई) असदत् मातरम् पुरः (माता रूपी अंतरिक्ष (मातान्तरिक्षम् - निरुक्त २/८) के पूर्व दिशा को प्राप्त करती है अर्थात पश्चिम से पूर्व की और अंतरिक्ष में घूमती है ) पितरं च प्रयन्स्वः (पिता रूपी सूर्य के चारों ओर गति कर रही है)

मंत्र के देवता तथा ऋषि के अनुसार मंत्र के अर्थ:
हर वेद मंत्र को अच्छे से जान ने के लिए उसके देवता,ऋषि आदि का ज्ञान होना आवश्यक होता है।
Chhandogya Upnishad (1/3/9)
छांदोग्य उपनिषद के अनुसार वेद मंत्रों के लिए उनके देवता तथा ऋषि आदि का चिन्तन अत्यंत आवश्यक होता है।

अगर हम देखें यजुर्वेद (३/६) का देवता कोन है तो वह है अग्नि अब इसी को लक्षित कर के अन्य आचार्यों ने यहां गौ का अर्थ यज्ञाग्नि से ग्रहण किया है लेकिन अधिदैविक व्याख्या में अग्नि शब्द का अर्थ पृथ्वी भी होता है। 

ऋग्वेद (१/५९/२) में भी लिखा है "नाभिरग्निः पृथिव्या" अर्थात पृथ्वी की केंद्र या गर्भ में अग्नि स्थित है इसलिए भी पृथ्वी को अग्नि कहा जाता है।
Shatpath Brahman (6/1/2/35)

Shatpath Brahman (6/1/2/29)

इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण में भी पृथ्वी ही अग्नि है एसा लिखा हुआ है।

तथा यजुर्वेद (३/६) का ऋषिका हैं सर्पराज्ञी कद्रू जिन्होंने यह मंत्र का दर्शन किए थे। 
Jaiminiya Brahamn (3/304)
जैमिनीय ब्राह्मण के अनुसार सर्पराज्ञी बोलते हैं पृथ्वी को क्यों की पृथ्वी के अंदर या इसके ऊपर सारे सरीसृप रेंगते है अथवा जन्म लेते है इसलिए पृथ्वी इनके लिए रानी ( मुख्य ) हैं।

हो सकता है की पृथ्वी संबंधी मंत्र द्रष्टा होने के कारण उन ऋषिका के नाम सार्पराज्ञी कद्रू पड़ा हो। शतपथ ब्राह्मण (३/६/२) में आए एक आख्यान में भूमि को भी कद्रू कहा गया है।

इसी प्रकार हम को यजुर्वेद (३/६) के मंत्र में देवता तथा ऋषि में एक गुढ़ सम्बंध देखने को मिलता है जो की मंत्र के अर्थ खोलने में सहायक होता है।

लेकिन ऋग्वेद (१०/१८९/१) में आए "आयं गौः पृश्नि॑रक्रमी॒द" मंत्र के देवता थोड़ा भिन्न मिलता है इसके देवता सर्पराज्ञ्या सूर्य है । 

क्यू की शतपथ ब्राह्मण (७/४/१/२५) के अनुसार "इमे वै लोकाः सर्पा" अर्थात यह जितने सारे लोक हैं उनको सर्प कहा जाता है तथा सूर्य उन लोकों के राजा है अर्थात पिता समान है जैसे एक राजा का अपने प्राजाओं के लिए पिता जैसा कर्तव्य होता है वैसे ही सूर्य बाकी ग्रहों का तथा पृथ्वी में स्थित प्रजाओ का पोषण करता है । 

हमारे पृथ्वी भी अपने पिता रूपी सूर्य के चारों ओर गति करती है इसलिए यह मंत्र उभय पृथ्वी तथा सूर्य दोनो के विशेषता बता रहा है।

Conclusion: तो इन सारे प्रमाणों से महर्षी दयानंद जी के वेद में पृथ्वी भ्रमण विषय का प्रमाणिकता सिद्ध होती है तथा पौराणिक आचार्य जैसे की स्वामी करपात्री आदि ने जो इस मंत्र को ठीक ठीक न समझने के कारण वेदों का अवैज्ञानिक भाष्य किए उनका अज्ञानता ही सिद्ध होता है।

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

WOMEN IN THE VEDAS

Flat Earth In Vedas (Debunked)

Controversy Of Brahma & Saraswati