Scientific Error In Vedas Debunked
Written by -Vedic Dharmi Ashish
Does the Sun rises from the ocean according to the Vedas?
Ved ka bhed वेबसाइट ने वेद के कुछ मंत्रों जैसे की ऋगवेद (७/५५/७), अथर्ववेद (४/५/१) तथा अथर्ववेद (७/८१/१) इन मंत्रों से यह सिद्ध करने का व्यर्थ कोशिश किया हैं की वेद अनुसार सूर्य समुद्र में से निकलता हैं।
सबसे पहले तो आक्षेप लगाने वाले को मेरा यह सलाह है की वेद मंत्रों पे कुछ भी अनर्गल आक्षेप लगाने से पहले थोड़ा वैदिक संस्कृत का ज्ञान लें। क्यों कि वैदिक शब्दों को लौकिक संस्कृत के आधार पे उनका अर्थ लीना घोर मूर्खता ही है। वैदिक शब्दों को सिर्फ प्रकरण अनुसार और वैदिक शब्दकोष का प्रयोग कर के ही उनका अर्थ का ज्ञात होता हैं। इसलिए वेद में जो समुद्र शब्द आया हैं की सूर्य "समुद्र" में से उगता हैं इसका भावार्थ भी हम को वैदिक शब्दकोष में ही पता चलता है।
वास्तव में यहां समुद्र का अर्थ अंतरिक्ष या आकाश ही हैं। महर्षि यास्क के निघंटु शब्दकोष (१/३) में अंतरिक्ष के जो १६ नाम गिनाए हैं उनमें से एक नाम "समुद्र" भी हैं। अर्थात वेद में यहां सूर्य उदय के लिए जो समुद्र शब्द आए है उनका अर्थ प्रकरण अनुसार अंतरिक्ष अर्थ ही होगा।
![]() |
Nighantu (1/3/15) |
![]() |
Nirukta (2/10) |
तो उपरोक्त प्रमाणों के अनुसार वैदिक शब्दकोष से भी यह सिद्ध होता हैं की समुद्र शब्द का अर्थ अंतरिक्ष भी होता हैं।
ऋग्वेद (७/५५/७) और अथर्ववेद (४/५/१) दोनों में समान मंत्र आया है और यहां "समुद्र" शब्द का अर्थ पार्थिव समुद्र न होके प्रकरण अनुसार यहां अर्थ अंतरिक्ष ही होगा।
![]() |
Atharvaveda (4/5/1) & Rigveda (7/55/7) |
चौदहवीं सदी के वेद भाष्यकार आचार्य सायण ने भी अथर्ववेद के इस मंत्र में जो "समुद्र" शब्द आया है उसका अर्थ "अंतरिक्ष" ही लिया हैं लेकिन बाद के हिंदी व्याख्याकारो ने सायण भाष्य का यहां गलत अर्थ किया हैं यह ध्यान रखने वाली बात है।
![]() |
Atharvaveda (4/5/1) Translated By Acharya Sayana |
अब प्राचीन वेद भाष्य से भी यह सिद्ध होते हैं की यहां समुद्र का अर्थ अंतरिक्ष ही है।
अथर्ववेद (७/८१/१) पर भी यह आक्षेप लगाए गए हैं की इसमें सूर्य और चंद्र समुद्र तक पोहोचते हैं ऐसा लिखा हैं ।
![]() |
Atharvaveda (7/81/1) |
वास्तव में यह मंत्र कुछ पाठ भेद के साथ ऋग्वेद(१०/८५/१८) में भी आया हैं। बस इन दिनों मंत्रों में पाठ भेद यह हैं कि जहां ऋग्वेद मैं अंतरिक्ष के लिए वहां "अध्वरम्" (निघंटू १/३ के अनुसार) शब्द का प्रयोग किया गया हैं वही अथर्ववेद (७/८१/१) में वहां अंतरिक्ष के लिए "अर्णवम्" का इस्तेमाल किया गया हैं। अमरकोष (१/१०/४) के अनुसार "अर्णवम्" शब्द का अर्थ "समुद्र" भी होता हैं और "अंतरिक्ष" भी होता हैं लेकिन इस मंत्र में प्रकरण अनुसार यहां अंतरिक्ष अर्थ ही लेना उचित होगा क्यों की ऋगवेद में इसी मंत्र के पाठ भेद में "अध्वरम्" शब्द का प्रयोग किए गए हैं जिसका अर्थ अंतरिक्ष ही होता हैं।
![]() |
Atharvaveda(7/81/1) Translated By Acharya Sayana |
इन मूर्खों ने कौषीतकि ब्राह्मण (18/9) पर भी यह आक्षेप लगाए हैं कि इसमें लिखा है की सूर्य जल में अस्त होता है।
![]() |
Aitareya Brahmana (4/20) |
ऐतरेय ब्राह्मण (4/20) में सूर्य को एक रूपक विशेषण दिया गया है "अब्जा" जिसका अर्थ होता है जो जल से उत्पन होता है या निकलता है।
आचार्य सायण ने इस कंडिका पर भाष्य करते हुए लिखते हैं की सूर्य पूर्व समुद्र से उदय तथा पश्चिम समुद्र में अस्त होता है एसा लोगों को प्रतीत होता है। अर्थात वास्तव में सूर्य जल से उदय या अस्त नहीं होता बस लोगों के नजर में सूर्य का उदय या अस्त कुछ इस प्रकार प्रतीत होता है।
अब वेद के व्याख्यान ग्रंथ यानिकि ब्राह्मण ग्रंथों में ही यह तक लिखा हैं की वास्तव में यह सूर्य न तो कभी उदय होता हैं और न ही कभी अस्त ही होता हैं, तो किसी समुद्र के जल में सूर्य का उदय या अस्त होने का बात वेद में या ब्राह्मण ग्रंथों में होना संभव ही नहीं है। |
ऋगवेद के ऐतरेय ब्राह्मण(3/44) और अथर्ववेद का गोपथ ब्राह्मण (2/4/10) में भी लिखा हैं की यह सूर्य न तो कभी अस्त होता हैं और न कभी उदय होता है। जब लोग यह मानते हैं की सूर्य अस्त हो गया हैं तो वास्तव में इसका दो विपरीत प्रभाव होता हैं एक तो जहां सूर्य अस्त होता हैं वहा रात्रि होता हैं दूसरा उसके विपरीत प्रदेशों में दिन होता हैं। इसी प्रकार दूसरे प्रदेश के लोग जब यह मानते हैं की सूर्य उदय हो रहा तो इसका अर्थ यह है की इसके विपरित हिस्से में रात हो रहा होता हैं।
नो ह वा असाव् आदित्यो ऽर्वाङ् न पराङ्, तिर्यङ् उ ह वा एष। षड् वा एष मास दक्षिणैति, षड् उदङ्। -(जैमिनीय ब्राह्मण 2/372)
अर्थात: वास्तव में सूर्य न तो नीचे की ओर न ही ऊपर की ओर चलता है। वह छह महीने के लिए दक्षिण की ओर रहता है, और छह महीने के लिए उत्तर की ओर रहता है।
इसी प्रकार सामवेद का ब्राह्मण ग्रंथ "जैमिनीय ब्राह्मण" में भी स्पष्ट उल्लेख मिलता है की वास्तव में यह सूर्य न ऊपर की और जाता है और न ही नीचे की और जाता है। वह छह महीने के लिए दक्षिण के तरफ रहता है और बाकी छह महीने तक उत्तर की और रहता है। यह बात आज के आधुनिक विज्ञान से भी सिद्ध है कि पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव में छह छह महीने तक दिन और रात होता है। यह है सनातन धर्म के प्राचीन ऋषियों के वैज्ञानिकता।
यानिकि ऋषियों का यह मत है की सूर्य पृथ्वि के चारों तरफ़ नहीं घूमता न अस्त होता है न उगता है असल में पृथ्वी के अपने अक्ष पर घूमने के वजह से पृथ्वी की एक हिस्से में जहां दिन होता हैं वही दूसरे हिस्से में रात होता हैं।
सत्य सनातन वैदिक धर्म की जय।।
ReplyDelete