Written By- Vedic Dharmi Ashish
सनातन वैदिक धर्म के मूल आधार तथा ईश्वर के द्वारा ऋषियों को प्राप्त वेदों के ज्ञान को सांख्यदर्शन में महर्षी कपिल द्वारा अपौरुषेय तथा नित्य कहा गया है जो सीधा संकेत करता है की इसमें कोई अनित्य इतिहास नही है। पर वेद में अनेकों ऐसे संवाद सूक्त है जो एसा प्रतीत कराता है की इसमें अनित्य इतिहास है। इस लेख में हम इसी भ्रांति का निवारण करेंगे।
वेद में आए संवाद सूक्त ऐतिहासिक या प्राकृतिक?
ऋग्वेद (१०।९५) में ऐल-पुत्र पुरूरवा तथा उर्वशी का संवाद सूक्त है। इस संवाद के आधार पर ही वेद के बाद परवर्ती साहित्य में उर्वशी को अप्सरा और पुरूरवा को चन्द्रवंशी पुरुष कहा है, और एक कथा गढ़ दी गई, कि उर्वशी ने पुरूरवा की कामना की और उससे सम्भोग किया। उर्वशी जब लुप्त हो गई, तब पुरूरवा विह्वल होकर उसके पीछे गया, और उससे लौटने की प्रार्थना की, किन्तु उर्वशी ने कहा कि मैं नहीं आऊँगी ।
कवि कालिदास ने इस कथा के आधार पर 'विक्रमोर्वशी' नाटक रचना की है। इस प्रकार सर्वसाधारण जनता में भ्रम फैला हुआ है कि ऋग्वेद में वर्णित यह इतिहास मानवीय इतिहास है।
पुरुरवा क्या है?
ऋग्वेद के इस संवाद में पुरूरवा को यास्काचार्यकृत निरुक्त (१०/४७) में मध्यस्थानीय देवता माना गया है, अर्थात पुरुरवा कोई पृथ्वी स्थानीय राजा नहीं है जो इनका इतिहास पृथ्वी में घटा होगा। वास्तव में पृथ्वी से ऊपर और द्यो के नीचे अर्थात पृथ्वी और द्यो के मध्य में जो वायु मंडल होता है उसको मध्यम स्थान माना जाता है उसी मध्यम स्थान के देवता हैं पुरुरवा।
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निरुक्त (१०/४७) स्कंध भाष्य |
और पुरुरवा पद का निर्वचन होता है-"पुरूरवा बहुधा रोरूयते" (निरुक्त १०.४६) अर्थात् बहुत शब्द करता है, इससे पुरूरवा कहलाता है। निघण्टु (३/१) में भी 'पुरु' शब्द का अर्थ 'बहुत' और 'रु' धातु का अर्थ 'शब्द करना' है। अर्थात जो बोहोत शब्द करता है उसको यह विशेषण दिया जाता है इस प्रकरण में पुरुरवा किसी व्यक्ति के लिए नहीं अपितु मेघ को कहा गया है यहां तक कि स्कंद स्वामी ने भी पुरुरवा का अर्थ मेघ माना है।वेद में पुरूरवा का विशेषण 'ऐल' है- इ॒मे आ॒हुः॒ ऐ॒ळ॒ यथा॑ ई॒म्- (ऋग्वेद १०/९५/१८), अर्थात् 'इला" का पुत्र पुरूरवा " और "इला" शब्द कौषीतकि ब्राह्मण (९/२) में पृथ्वी का वाचक है।
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निघण्टु (१/१) |
निघण्टु (१/१) में भी इला शब्द पृथ्वी के नाम है बताया गया है।इस से सिद्ध हुआ की पुरुरवा मेघ है क्युकी पृथ्वी से उठी हुई वाष्प ही मेघ को उत्पन्न करती है, और मेघ ही बहुत गर्जना ( शब्द ) करता है।
उर्वशी क्या है?
उर्वशी की व्युत्पत्ति 'उरु' अर्थात् दूर तक (उणादि सूत्र १/३१) 'अश् व्याप्तो' धातू द्वारा 'अशी' होने से व्याप्त होने के कारण उरु+अशी=उर्वशी दूर तक व्याप्त होने वाली 'विद्युत्' ही है।
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निरुक्त (५/१३) |
निरुक्त (५।१३) में भी लिखा है "उरु अभ्यश्नुते' अर्थात बहुत व्यांप्त होती है। उर्वशी को भी पुरुरवा के तरह मध्यस्थानीय देवता माना गया है। निरुक्त में इसे 'अप्सरा अप्सु सरति' अर्थात् अन्तरिक्षस्थ जलों में सर्पण (विचरण) करने वाली बताया गया है क्यू की जो विद्युत् है वह मध्यम स्थान आकाश में स्थित जल अर्थात मेघों में व्याप्त होती है। |
स्कंद स्वामी के निरुक्त (५/१४) |
स्कंद स्वामी जी ने भी अपने निरुक्त के भाष्य में उर्वशी का अर्थ स्पष्ट विद्युत किया है।इस आख्यान का भाव क्या है?इस अलंकार से केवल इतना भाव ही व्यक्त किया गया है कि मेघों के संघर्ष के समय उर्वशी (विद्युत्) प्रकट होती है, और वही विद्युत् क्षण भर में लुप्त हो जाती है। यही उर्वशी का छिपना है।
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शतपथ ब्राह्मण(३।४।१।२२) |
शतपथ ब्राह्मण(३।४।१।२२) में पुरूरवा और उर्वशी से 'आयु' उप्पन्न हुआ "उर्वशी वा ऽप्सराः पुरूरवाः पतिः, अथ यत् तस्मान् मिथुनाद् अजायत तद् आयुः" इसी शतपथ ब्राह्मण (९।२।३।१६) में 'आयु' को 'अन्न' कहा है (अन्नम् उ वा आयुः), निघण्टु (२।७) में भी आयु को 'अन्न' नाम में पढ़ा गया है। इससे सिद्ध है कि पुरुरवा और उर्वशी "मेघ" और "विद्युत्" हैं, और उनके मेल से वृष्टि, और वृष्टि से अन्न पैदा होता है।
उर्वशी पुरुरवा कथा के तात्पर्य :
ऊपर वर्णित सारे प्रमाणों तथा तर्कों से यही सिद्ध होता है की ऋग्वेद (१०/९५) का उर्वशी और पुरुरवा संवाद सूक्त कोई मानवीय इतिहास नहीं है अपितु प्राकृतिक तत्वों का ही व्यक्तिकरण है तथा निरुक्त (१०/१०) में महर्षी यास्क जी लिखते है "ऋषेर्दृष्टार्थस्य प्रीतिर्भवत्याख्यानसंयुक्ता" अर्थात् ऋषियों को अपने दर्शन किए हुए मंत्रार्थ को आख्यान के माध्यम से वर्णन करना रुचिकर लगता है। इसलिए ऋषियों ने जो ज्ञान ईश्वर से प्राप्त किया उन्होने वेदों में विभिन्न संवाद सूक्त तथा कथाओं के माध्यम से उसके यौगिक अर्थों को खोला है।
निरुक्त में भी दोनो को मध्यम स्थानीय देवता माना गया हैं अर्थात वायु मंडलीय देव हैं न की पृथ्वी स्थानीय देवता। लेकिन अगर यह दोनों मानवीय इतिहास होता तो इनको पृथ्वी स्थानीय बोला जाता क्यू की इतिहास तो पृथ्वी में घटित होता है। इसी से सिद्ध हुआ की यह मानवीय अनित्य इतिहास नहीं है वल्कि प्राकृतिक नित्य इतिहास है और उनका व्यक्तिकरण है। जेसे इन्द्र और वृत्र असुर के युद्ध का भी वर्णन वेद में आता है लेकिन वह भी कोई मानवीय इतिहास नहीं है निरुक्त में उसे भी प्राकृतिक नित्य इतिहास ही माना गया है।
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