क्या वेद के अनुसार यज्ञों में मद्यपान करना लिखा है?

 

Written By : Vedic Dharmi Ashish 

   वेद के कुछ मंत्रों पर अक्सर यज्ञ के नाम पर मद्य पान को समर्थन देने का आरोप लगाया जाता है। ऐसी भ्रांति खास कर वेद के जो पाश्चात्य अनुवादकों के द्वारा किए गए वेद के निरर्थक अनुवाद में दिखता है। 

अंग्रजों के वेद अनुवाद में यह दर्शाया गया की वैदिक काल में यज्ञ में दारूबाजी करना सामान्य बात थी तथा भारतीयों में याज्ञिक अनुष्ठानों को बदनाम करने की प्रयत्न हुई। हमारे इस लेख में हम क्या यज्ञ में मद्यपान का व्यवहार था अथवा नहीं इसके ऊपर विस्तृत व्याख्या करेंगे।

वैदिक यज्ञ में "सुरा" का प्रयोग :

वेदों में यज्ञों में कहीं कहीं सुरा का प्रयोग करना विधान है। अब साधारण लौकिक दृष्टिकोण से देखें तो सुरा का अर्थ मद्य के लिए ही व्यवहार में आता है लेकिन वेदों के संस्कृत रूढ़ नही वल्कि यौगिक है।

Rigveda (1/116/7) By Griffith 
जैसा कि आप देख सकते हो इन अंग्रजों ने किस प्रकार से वेद मंत्र के अर्थ का अनर्थ कर दिया है। 

ऋग्वेद (१/११६/७) के मूल मंत्र में कुछ इस प्रकार यह पद आता है- "श॒तं कुं॒भाँ अ॑सिंचतं॒ सुरा॑याः"॥ अर्थात- यज्ञ में १०० कुंभ को "सुरा" से भरा गया।

आचार्य सायण ने इस मंत्र के भाष्य में लिखते है की यहां सौत्रामणि आदि याज्ञिक कर्मों में सुरा ग्रहण का अभिप्राय से है। (सौत्रामण्यादिकर्मणि युष्मद्यागाय सुरां याचन्ते तेषामित्यर्थः)

शतपथ ब्राह्मण (१२-८-१-२) में लिखा है की- "सौत्रामण्यां सुरां पिबेत्" अर्थात सौत्रामणि नामक यज्ञ में सुरा का पान करें।

यज्ञों में सुरा का का वास्तविक अर्थ क्या है?

महर्षि पाणिनि के धातुपाठ ( धातू नंबर १८६६) तथा उणादि सूत्र (२/२४) के अनुसार "षुञ् अभिषवे" धातू से "क्रन्" प्रत्यय लग के सुरा शब्द बनता है जिसका धातुगत अर्थ होता है निचोड़ने से प्राप्त होने वाला रस । 

Nirukta (1/11)
भगवान यास्क ने भी निरुक्त (१/११) में सुरा शब्द का निर्वचन करते हुए लिखते हैं की "सुरा सुनोतेः" अर्थात् सुरा वह रस है जो निचोड़ने से प्राप्त होता है। 

यद्यपि सुरा शब्द का साधारण अर्थ मद्य भी होता है पर याज्ञिक प्रकरणों में सुरा का अर्थ मद्य नही है वल्कि जल में औषधियों को निचोड़ने से प्राप्त होने वाला रस से ही यज्ञ होता है।

Shatpath Brahman (12/8/1/4)
शतपथ ब्राह्मण (१२/८/१) में जो सौत्रामणि यज्ञ का प्रकरण आया है उसमें भी जालों में निचोड़े गए ओषधियों के रसों को ही सुरा कहा गया है जिसको यज्ञ में आहुति देने के बाद पिया जानेका विधान है।

महर्षी दयानंद जी ने भी अपने सत्यार्थ प्रकाश में शतपथ में आए "सौत्रामण्यां सुरां पिबेत्" कंडिका का अर्थ करते हुए लिखते हैं की सौत्रामणि यज्ञ में सोमरस पीने का ही विधान है शराब पीने का नहीं।
Rigveda (10/91/14) By Acharya Sayana
प्राचीन वेद भाष्यकार आचार्य सायण ने भी अपने ऋग्वेद (१०/९१/१४) के भाष्य में "सौत्रामण्यां सुरां पिबेत्" कंडिका का प्रमाण देकर उस में आए सुरा पीने का अर्थ सोमयुक्त उदक अर्थात औषधियों के रस मिश्रित जल पीना ही किया है।

सुरा औषधियों के रस है इसी कारण ब्राह्मण ग्रंथों में सुरा को यश अर्थात पराक्रम देने वाला तथा परम अन्न आदि विशेषण भी दिया गया है।

यशो हि सुरा - शतपथ ब्राह्मण (१२/७/३/१४)

अर्थात- सुरा यश है। इस से बल और पराक्रम की प्राप्ति होती है।

एतन्मनुष्याणाम् यत्सुरा परमेणैवास्मा अन्न - तैत्तिरीय ब्राह्मण (१/३/३/३)

अर्थात- यह सुरा हि मनुष्यों का परम अन्न है।

सोमरस का वास्तविक अर्थ क्या है?
लेकिन आज कल के मूर्ख लोग सोमरस को
भी शराब के साथ जोड़ के देखते है। जब की वेदों में कहीं नहीं लिखा की सोमरस शराब है।
Rigveda (10/85/3)
ऋग्वेद (१०/८५/३) तथा अथर्ववेद (१४/१/३) में स्पष्ट उल्लेख है की सोमलता अर्थात वनस्पतियों के औषधियों को निचोड़ कर जो रस बनाया जाता है वही सोमरस है।
Yajurveda (19/33)
यजुर्वेद में भी लिखा है की इकट्ठा हुए औषधि के रस को ही सोमरस कहा जाता है।

वैदिक धर्म में मद्यपान निषेध है :
वेद तथा उसके ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषद आदि में मद्यपान निषेध किया गया हैं तथा मद्य की निंदा भी किया गया है।

Rigveda (10/5/6)
वेद के अनुसार ईश्वर ने मनुष्यों के लिए सात मर्यादाएं बनाए हैं अगर कोई मनुष्य उन मर्यादाओं को उलंघन करता है तो वह पापी होता है।
Nirukta (6/27)
उन सभी मर्यादाओं के बारे में महर्षि यास्क ने निरूक्त में व्याख्या किया है तथा इनमें से सुरा अर्थात् मद्य पान करने वाले को भी पाप के श्रेणी में रखा गया है। अर्थात् अगर कोई व्यक्ति मर्यादा भंग कर के मद्य पिता है तो वेदों के अनुसार वह पापी होता है।

यहां ध्यान रखने वाली बात यह है की सुरा का अर्थ उभय मद्य और औषधियों के रस दोनों अर्थों में संभव है इसलिए हमें प्रकरण देख के अर्थ समझना चाहिए।
Chhandogya Upnishad (5/10/9)
छांदोग्य उपनिषद में मद्य पीने वाला तथा मद्य पीने वाले के साथ संगत करने वाला दोनो को ही पतित अर्थात नीच बोला गया है।
Chhandogya Upnishad (5/11/5)
छांदोग्य उपनिषद् में सम्राट अश्वपति जी अपने वैदिक राज्य के विवरण देते हुए बोलते हैं की उनके वैदिक राज्य में कोई भी मद्यप अर्थात शराब पीने वाला नहीं है। अर्थात वैदिक राज्यों में शराब पीना एक दंडनीय अपराध थी।
Shatpath Brahman (5/1/2/10)
इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण में भी सुरा अर्थात मद्य को पाप, मिथ्या और अंधकार का प्रतिक बोल के मद्य की निंदा किया गया है तथा सोमरस को सत्य, पुण्य और ज्योति का प्रतिक माना गया है।
Mahabharata (13/141/26-27)
महाभारत के अनुशासन पर्व में भगवान शिव जी ने भी धर्म के ५ लक्षण बताते हुए बोलते हैं की मद्य और मांस आदि से दूर रहना ही धर्म है इसी से सुख की प्राप्ति होती है।
Mahabharata (12/265/9)
महाभारत में महर्षी वेद व्यास जी भी लिखते हैं की यज्ञों में मद्य, मांस आदि का प्रचलन धूर्त लोगों के द्वारा किया गया था जब की वेदों में इन वस्तुओं का प्रयोग वर्जित है।

Conclusion: इन्ही सब प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाते है की सनातन वैदिक धर्म के शास्त्रों में मद्य तथा मद्य पीने वालों का सबसे ज्यादा निंदा करी गई है इसलिए यज्ञों में मद्य पान करने का आक्षेप निराधार ही सिद्ध होता है।

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