क्या वेदों में पृथ्वी स्थिर है?
Ved ka bhed नामक वेबसाइट के द्वारा कुछ वैदिक मंत्रों पर यह आक्षेप लगाया गया हैं की वेद पृथ्वी को स्थिर बताया है जहां तक प्रतीत होता है की Ved ka bhed वाले को वैदिक सांस्कृत का ज्यादा ज्ञान नहीं हैं क्यूकी वेद के व्याकरण ग्रन्थ निरूक्त में ही पृथ्वी को गतिशील माना गया हैं तो वेद में पृथ्वी को स्थिर (static) होने का सवाल ही नही उठता।
महर्षि यास्क आचार्य द्वारा रचित वेद के व्याख्यान ग्रंथ निरुक्त में पृथ्वी को "गौ" नाम दीया गया हैं अब "गौ" शब्द का अर्थ कुछ लोग यहां जातिविशेष की पशु से लेंगे लेकिन वैदिक साहित्य के शब्दों का अर्थ यौगिक होते हैं। महर्षी पाणिनि के व्याकरण ग्रंथ उणादिसूत्र (2/68) के अनुसार संस्कृत के "गम्लृ गतौ" इस धातु से "गौ" शब्द की सिद्धि होती हैं जिसका अर्थ होता हैं गमनशील होना इसलिये निरुक्त में सिर्फ पृथ्वी को ही नहीं सूर्य, चंद्र, नक्षत्र आदि को भी "गौ" की संज्ञा दिया गया हैं क्योंकि यह सब गतिशील है। निरुक्त (२/५) में ही लिखा हैं की "गौ" पृथ्वी का नाम हैं क्यों कि ये दूर तक गति करती हैं।
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Nirukta (2/5) |
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Nirukta Translated By Dr. Jamuna Pathak |
अस्तु वेद के व्याकरण से भी यह सिद्ध हो गया की पृथ्वि गमन करती हैं।
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Shatpath Brahmana (7/1/4/25) |
यजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रंथ शतपथ ब्राह्मण (7/4/1/25) में भी लिखा है कि- "इमे वै लोकाः सर्पास्ते हानेन सर्वेण सर्पन्ति यदिदं किं च" अर्थात् यह जो पृथ्वी आदि लोक है, वही सर्प है क्यूकी बह अपने भीतर रही सारे वस्तुओं के साथ निरंतर चलते रहते है इसलिए पृथ्वी आदि लोकों को भी सर्प का उपमा दिए गए है। इससे ब्राह्मण ग्रंथों में भी पृथ्वी की गति सिद्ध होती है।
अब हम इस धूर्त के द्वारा लगाए गए वेद मंत्रों पे कुछ अक्षेपों का खंडन करेगें। सबसे पहली बात वेद में पृथ्वि की गति सिद्ध हैं ऐसा खुद चौदहवीं सदी के प्राचीन भाष्यकार आचार्य सायण ने भी माना हैं उन्होने ऋग्वेद (५/८४/२) के भाष्य में पृथ्वी को चलनेवाली या विचरण करने वाली माना है ।
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Sayana Bhasya On Rigveda(5/84/2) |
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Samveda (2/1/7) |
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Atharvaveda (6/77/1) |
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Atharvaveda (6/44/1) |
ये विधर्मी अथर्ववेद (6/44/1) और अथर्ववेद (6/77/1) मंत्रों से वेद में धरती को स्थिर बताने का कुतर्क देते हैं जब की इन मंत्रों मै धरती, द्यौ लोक आदि को मर्यादा या नियम में स्थिर होने की बात कहा गया हैं इससे यह सिद्ध नहीं होता की पृथ्वि की गति नहीं हैं और इस मंत्रो में अश्व यानिकी इंद्रिय शक्ति और रोग आदि का भी वर्णन हैं इसका भावार्थ यही हैं जैसे पृथ्वि आदि अपने अपने कक्ष में नियम में हैं उसी तरह हम को भी अपने इंद्रिय शक्ति और रोग इत्यादि को नियमित रखना चहिए ताकि एक उत्तम जीवन जिए।
इस तर्क को और भी अधिक स्पष्ट करता हैं इसके आगे के मंत्र जैसे की अथर्ववेद (6/88/1)।
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Atharvaveda (6/88/1) |
अथर्ववेद का यह मंत्र कुछ पाठभेद से ऋग्वेद (१०/१७३/४) में भी आया हैं। इस मंत्र में पृथ्वी आदि की उपमा देकर यह उपदेश किया गया हैं की जैसे पृथ्वी आदि अपने अपने मर्यादा में स्थित है वैसे ही प्रजाओं के पालक राजा भी स्थिर रहें। अगर हम यहां पर स्थिरता से यह अर्थ निकाल ते हैं की पृथ्वी इत्यादि नहीं हिलते तो क्या राजा भी हिलेगा नहीं। ऐसा अर्थ करना कुतर्क ही हैं। वास्तव में इन सारे वेद मंत्रों का अभिप्राय यह हैं की जैसे पृथ्वी आदि प्राकृतिक वस्तुएं ईश्वर के द्वारा बनाए गए नियम से बंधे हुए हैं जैसे वह सब कभी भी अपने मर्यादा का उलंघन नहीं करते वैसे ही हमे अपने इंद्रिय शक्ति, रोग आदि को नियम में स्थिर करना चाहिए एवं इसी उपमाओं के अनुसार राजा को भी अपने मर्यादा में नियम से स्थिर रहना चाहिए।
इसी प्रकार ऋग्वेद (३/३०/४) में भी लिखा हैं की ईश्वर के संकल्प से ही उनके अनुकूल नियम में पृथ्वी और सूर्य लोक स्थिर हैं।
ऋग्वेद (१०/८९/४) में भी वर्णित हैं की परमात्मा ही पृथ्वी आदि लोकों को धारण किए हुए हैं जैसे धूरा पहियों को धारण करता हैं। इसी से साफ साफ सिद्ध होता हैं कि जैसे धूरा के बिना पहियों के घूमना असंभव हैं वैसे ही ईश्वर के नियम के बिना संसार चक्र चलना भी असंभव हैं इसलिए इस मंत्र में धूरा और पहियों का उपमा दिया गया हैं।
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Rigveda (10/89/4) |
वेद में पृथ्वी को दृढ़ बताया गया हैं।
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Yajurveda (32/6) |
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Atharvaveda (13/1/6) |
यजुर्वेद (३२/६) और अथर्ववेद (१३/१/६) इन मंत्रो में पृथ्वी के लिए जो "दृढ़" शब्द आए हैं उसपर आक्षेप कर्ता ने यह आक्षेप लगाए की यहां संस्कृत शब्द "दृढ़" का मतलब अचल होता हैं।
वास्तव में "दृढ़" शब्द का अर्थ यहां पर अचल नहीं है अपितु अष्टाध्यायी(७/२०/२) के अनुसार स्थूल,भारी या मजबूत भी होता हैं। यहां धारती को दृढ़ करने का अर्थ यह हैं की ईश्वर द्वारा पृथ्वी को भारी तथा मजबूत बनाने से हैं। ईश्वर ने जब पृथ्वी और सूर्य लोक को बनाए तो उन दोनों लोको को भारी और मजबूत बनाए उनमें से सूर्य लोक को उग्र भी बनाए।
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अष्टाध्यायी (७/२/२०) |
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